Sulochana : मंडे मोटिवेशन सेगमेंट में हम आपको हिंदी सिनेमा जगत की पहली महिला सुपरस्टार से मिलाने जा रहे हैं, जिन्हें हीरो से कहीं अधिक फीस मिलती थी। जी हां बॉलीवुड के शुरुआती दौर में जब महिलाएं फिल्मों में काम करने से कतराती थी, उस समय भारतीय सिनेमा को रूबी मेयर उर्फ Sulochana जैसी कलाकार मिली, जो फिल्मों में अभिनय के लिए हीरो से 50 गुना अधिक फीस लेती थी। रूबी मेयर्स भारत में रहने वाली यहूदी थी, जिन्हें हिंदी तक ठीक से बोलना नहीं आता था, लेकिन फिर भी सुलोचना के नाम से मशहूर रूबी अपने जमाने की सबसे महंगी अभिनेत्री थी।
ऐसी अभिनेत्री जिनकी हीरो से 50 गुना अधिक थी सेलरी
अगर बॉलीवुड की पहली फीमेल सुपरस्टार की बात की जाए, तो दिवंगत अभिनेत्री श्रीदेवी का नाम सबसे पहले आता है, लेकिन क्या आपको मालूम है कि उनसे भी काफी पहले जब मूक फिल्मों का दौर चल रहा था, उस समय सुलोचना नाम की एक अभिनेत्री ने बॉलीवुड में राज किया है। उन्हें हिंदी सिनेमा जगत की पहली महिला सुपरस्टार का दर्जा मिला। जी हां कत्थई आंखों वाली इस बोल्ड एक्ट्रेस की सैलरी मुंबई के गवर्नर से भी कहीं अधिक थी, जिस समय एक फिल्म का हीरो को 100 रुपया मिलता था उस समय यह एक्ट्रेस ₹5000 फीस लेती थी, लेकिन समय के साथ उनका संघर्ष भी बढ़ता गया और उन्हें अपनी वही जगह बरकरार रखने के लिए काफी संघर्षों के दौर से गुजरना पड़ा। सिनेमा जगत में सुरैया और नूरजहां जैसी अभिनेत्रियों के आने के बाद जिन्हें गाने में भी महारत हासिल थी, उसके बाद रूबी मेयर का दबदबा घटने लगा और धीरे-धीरे खत्म होता चला गया। एक समय ऐसा आ गया कि यह बड़ी अभिनेत्री सिर्फ जूनियर आर्टिस्ट बनकर रह गई और कुछ समय बाद गुमनामी के अंधेरे में कहीं खो गई। आइए आज मंडे मोटिवेशन सेगमेंट के चलते हम जानते हैं उनके बारे में कुछ खास बातें।
टाइपिस्ट और टेलीफोन ऑपरेटर रही यह एक्ट्रेस
साल 1907 में पुणे में जन्मी रूबी मेयर एक टाइपिस्ट और टेलीफोन ऑपरेटर का काम करती थी। वह इतनी अधिक खूबसूरत थी कि हर कोई उनकी एक झलक पाने को तरसता था। उस समय कोहिनूर फिल्म कंपनी के मोहन भवनानी की नजरे उन पर पड़ी और उन्होंने उन्हें एक्ट्रेस बनने का ऑफर दे दिया, लेकिन उस समय फिल्म इंडस्ट्री में महिलाएं काम करने से कतराती थी, जिसके चलते उन्होंने इस ऑफर को ठुकरा दिया। पर मोहन फिर भी अपनी बात पर डटे रहे और आखिरकार उन्हें फिल्मों में काम करने के लिए मना ही लिया।
ऐसी बनी सुलोचना
धीरे-धीरे समय के साथ रूबी मेयर सुलोचना में बदल गई। उन्हें एक्टिंग करनी बिल्कुल भी नहीं आती थी लेकिन अपनी खूबसूरती और कातिलाना अदाओं के चलते वह अपनी पहली फिल्म में ही पॉपुलर हो गई और देश की सबसे अधिक फीस लेने वाली एक्ट्रेस बन गई। कहा जाता है कि उस समय जब हीरो को एक फिल्म का ₹100 मिलता था उस समय सुलोचना अपनी एक फिल्म के लिए ₹5000 फीस लेती थी।
सुलोचना की फेमस फिल्में
1926 में सुलोचना ने ‘टाइपिस्ट गर्ल’ 1997 में “बलिदान’ और ‘वाइल्ड कैट ऑफ मुंबई’ जैसी फिल्मों में काम किया है। उसके बाद साल 1928 में उन्होंने रोमांटिक फिल्मों की तरफ कदम रखे। उन्होंने आर एस चौधरी की ‘माधुरी’, ‘अनारकली’ और ‘इंदिरा बीए’ जैसी कई फिल्मों में भी काम किया जो की साइलेंट एरा की मशहूर फिल्में थी।
डगमगाने लगा करियर
जिस समय दमदार फिल्मों का दौर आया उस समय सुलोचना का करियर डगमगाने लगा, क्योंकि उन्हें न ही उर्दू आती थी और ना ही हिंदी। लेकिन उन्होंने प्रयास करना नहीं छोड़ा और 1 साल का ब्रेक लेने के बाद फिर फिल्मों की तरफ रुख किया। उनकी साइलेंट फिल्मों को दोबारा दमदार फिल्मों के रूप में उभारा गया। उन्होंने साल 1932 में ‘माधुरी’ फिल्म से वापसी की।
फिर लौट आई रौनक
एक बार फिर से सुलोचना की किस्मत रंग लाई। उनकी फिल्म फिर से हिट साबित हुई। उस समय सुलोचना के पास एक ऐसी बेहतरीन गाड़ी (Chevrolet Car) होती थी, जिसे देखने के लिए लोगों की भीड़ इकट्ठा रहती थी। इसके साथ रॉल्स-रॉयस जैसी महंगी गाड़ी भी उनके पास मौजूद थी। कहते हैं सुलोचना इतनी अधिक पॉपुलर थी कि लोग उनकी तस्वीर तकिया के नीचे रखकर सोते थे। जिस समय वह अपनी फिल्मों को देखने के लिए थिएटर जाती थी, उसेश समय वह लोगों की पहचान से बचने के लिए बुर्का पहन कर जाती थी। उन्होंने ‘रूबी पिक्स’ नाम का अपना खुद का स्टूडियो भी लॉन्च किया था।
इस अभिनेता के साथ जमाई जोड़ी
एक्टर Dinshaw Bilimoria के साथ सुलोचना की जोड़ी काफी जमीं। दोनों ने 1933 से 1939 तक मिलकर फिल्मों में काम किया। लोग उनकी जोड़ी को बहुत अधिक पसंद करते थे। 1947 में उनके नाम एक विवाद भी जुड़ गया, इसके बाद उनकी फिल्म ‘जुगनू’ पर मोरारजी देसाई ने बैन भी लगा दिया, जिसमें सुलोचना के साथ एक उम्र दराज प्रोफेसर के प्रेम की कहानी को दिखाया गया था, जिसकी मोरारजी देसाई ने नैतिक रूप से निंदा की।
गुमनामी के अंधेरे में हुई गुम
समय के साथ सुलोचना की चमक फीकी पड़ने लगी और उन्हें अपने खर्चों के लिए सर्पोटिंग रोल्स करने पड़े। साल 1953 में उन्होंने ‘अनारकली’ फिल्म में सलीम की मां का किरदार निभाया, इसके बाद फिर उन्हें रोल मिलने ही बंद हो गए और वह एक जूनियर आर्टिस्ट बनकर रह गई। 75-76 वर्ष की अवस्था में 1983 में उन्होंने अपने फ्लैट पर दम तोड़ दिया। हालांकि आखिरी के पलों में वह गुमनामी के अंधेरों में खो गई, लेकिन उन्होंने बॉलीवुड को जो योगदान दिया उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। 1979 में उन्हें सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार ‘दादा साहब फाल्के’ से भी नवाजा गया।
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